प्रणाम, नमस्ते, अभिवादन
प्रणाम, नमस्ते, अभिवादन
के.एल. बानी- वास्तुविद्
हमारी संस्कृति में प्रणाम बोलने और पैर छूकर अभिवादन करने का बहुत महत्व है। यह और किसी संस्कृति में नहीं है। पाश्चात्य संस्कृति में हाथ मिलाना, आलिंगन करना आदि आदि। प्रणाम के पीछे जो विचार है कि आदमी झुकता है पैरों की तरफ तो भावों में विनम्रता आती है यह हमारे यहां की विशेषता है। वैसे ही नमस्ते का उच्चारण करते हैं या बिना उच्चारण किए भी होता है। हमारी संस्कृति में कुछ खास बातें हैं जो बहुत सोच-समझकर लागू की गई हैं। आजकल लोग फ्लाइंग प्रणाम करते हैं बस थोड़ा झुकने का नाटक किया और हो गया प्रणाम। अब हमें झुकने में तकलीफ होने लगी। लगता है धीरे-धीरे हम बोलने तक रह जाएंगे फिर बाद में शायद वह भी लुप्त हो जाए। पहले माता-पिता, बड़ों को गुरु को घर और बाहर के लोगों को प्रणाम करने की परम्परा थी। प्रणाम आपको विनम्र बनाता है आपके अहं को समाप्त करता है। अहं की लड़ाई आज परिवारों में, पति-पत्नि में समाज में राजनीति में सब जगह दिखाई देती है इसलिए ऐसी परंपराएं बनाई गई थीं कि आदमी अहं छोड़े और विनम्र बने व्यवहार और बातों से। जब आप किसी को प्रणाम करते हैं तो आपकी आवाज बहुत सहज और मध्यम होती है। हमें हमारी परंपराओं को बनाए रखना चाहिए यह हमारी अमूल्य धरोहर है आज हम इसी की वजह से पहचाने जाते हैं। विदेशी राजनेता, पर्यटक यहां आकर अभिवादन के लिए नमस्ते सीख लेते हैं और करते भी हैं। कितना अच्छा लगता है उस समय हमें संस्कृति और परंपराओं पर गर्व होने लगता है। कुछ तो खासियत है हमारे यहां के लोग उसे अपनाते हैं। वैसा करने बनने की कोशिश करते हैं पर हमारे देश में लोग इसे भूल रहे हैं। इसे देखकर दुख होता है। हमें इसे बचाए रखने की, बनाए रखने की भरपूर कोशिश करनी चाहिए।
प्राचीन काल में राजा अपने राज सिंहासन से उतर कर ऋषि, मुनियों और विद्वानों को प्रणाम करते थे। गुरुओं को प्रणाम करते थे। उन्हें आर्शीवाद मिलता था और दिल से दिया गया आर्शीवाद फलित होता है, ऐसी मान्यता है। शतायु हो, दीर्घजीवी हो, सौभाग्यवती हो, सुखी रहो आदि आर्शीवाद पहले भी मिलते थे आज भी यह परंपरा चल रही है। बचपन से माता-पिता ये संस्कार बच्चों में डालते थे और ज्यादातर परिवारों में आज भी डाले जा रहे हैं। संस्कारविहीन परिवार विसंगतियों में जीते हैं अपराध की दुनिया में ऐसे ही लोगों का बोलबाला है। अन्नप्राशन, यज्ञोपवीत संस्कार और पूजा पद्धतियों के पीछे यही भावना रही होगी कि आदमी संस्कारवान बने और आने वाली पीढिय़ों को बनाए। वही बांटे जो उसके पास है। हम वही देते हैं जो हमारे पास होता है, अच्छा है तो अच्छा, बुरा है तो बुरा। और हम वही काटते हैं जो बोते हैं। इसलिए अच्छी फसल लगाएं संस्कारों की तो अच्छी फसल अवश्यम्भावी है। हम सुखी रहेंगे और दूसरों को भी सुख देंगे। जब दूसरे देश के लोग अपने जैसे-तैसे उच्चारण में भी हमारे देश के लोगों को नमस्ते कहते हैं तो हमें कितना सुख, आनन्द मिलता है। लगता है संस्कारों से हम कितने धनी हैं बस, इस दौलत को बनाए रखें और बढ़ाते रहें यदि संस्कार बढ़ेंगे तो अपराध कम होगें। आज बांटने वालों की बहुत कमी हो गई है। लेने वाले तो हमेशा रहे हैं, देने वाला चाहिए। आज की राजनीति संस्कारविहीन, मर्यादाविहीन, चरित्रविहीन, मूल्यविहीन हो गई है और परिवारों में भी यही देखने को मिल रहा है। इसे बचाइए नहीं तो हम कहीं के नहीं रहेंगे। यही मेरा संदेश है।
Comments
Post a Comment